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वाराणसी – महामूर्ख सम्मेलन. उमडा जनसैलाब घोडा घाट पर पूरी हुई 55 साल पुरानी परम्परा

टीम आईबीएन न्यूज

varanasi Mahamurkh Sammelan : वाराणसी दुनिया के सबसे प्राचीन शहरों में से एक है. यहां की परंपरा दुनियाभर में प्रसिद्ध है. इतना ही नहीं यह अपनी अल्हड़ मस्ती, फक्कड़पन औज मौज के लिए भी जानी जाती है.

इसी परंपरा में से एक है मूर्ख बनने की परंपरा, जो 55 साल पुरानी है. काशी के घोड़ा घाट पर हर साल महामूर्ख मेले का आयोजन किया जाता है. खास बात यह है कि लोग इस मेले में मूर्ख बनने जाते हैं. तो आइये जानते हैं वाराणसी के इस महामूर्ख मेले की कहानी…

बनारस की मौज, मस्ती, फक्कड़पन, अल्हड़ मिजाजी को जिंदा रखने की परंपरा

छह दशक से होता आ रहा आयोजन
दरअसल, वाराणसी के घोड़ा घाट का नाम बदलकर अब डॉ. राजेंद्र प्रसाद घाट कर दिया गया. शनिवार गोष्‍ठी की ओर से पिछले कई दशक से इस घाट पर हर साल पहली अप्रैल को महामूर्ख मेले का आयोजन किया जाता है. काशी के साहित्यकारों, साहित्यसेवियों तथा हास्य रसिकों के मंच ने बनारस की मौज, मस्ती, फक्कड़पन, अल्हड़ मिजाजी को जिंदा रखने की परंपरा का जो बीड़ा उठा रखा है.

घोडा घाट की सीढीयो पर खुद मूर्ख बनने के लिए आते हैं लाखों लोग

खास बात यह है कि इस मेले के लिए न कोई प्रचार होता है और न ही कोई बैनर लगाए जाते हैं. बस 1 अप्रैल की शाम मेले में लाखों की भीड़ एकत्रित हो जाती है. महामूर्ख मेले में आए लोग खुद-बखुद मूर्ख बनने के लिए घाट की सीढ़ियों पर आकर बैठ जाते हैं. दर्शक घोड़ा घाट की सीढ़ियां पर बैठ कर घंटों ठहाका लगाते हुए इसका आनंद लेते हैं.

55 साल पहले महामूर्ख मेले की शुरुआत डेढ़सी पुल से हुई थी

स्‍थानीय लोग बताते हैं कि 55 साल पहले महामूर्ख मेले की शुरुआत डेढ़सी पुल से हुई थी. उस दौरान चकाचक बनारसी, बेढब बनारसी, मोहनलाल गुप्त भइयाजी बनारसी, माधव प्रसाद मिश्र (एम भारती), केदारनाथ गुप्त, धर्मशील चतुर्वेदी व सांड़ बनारसी ने डेढ़सी पुल से की थी. इसके बाद पं. करुणापति त्रिपाठी ने इसको बजड़े पर करने को कहा. इसके बाद चौक थाने के सामने भद्दोमल की कोठी पर आयोजन होने लगा और कोठी जब ध्वस्त हो गई तो चौक थाने में भी महामूर्ख मेला सजने लगा. बाद में यह आयोजन घोड़ा घाट (डा. राजेन्द्र प्रसाद घाट) पर शुरू हो गया.

कवियों को उटपटांग उपहार देकर सम्मानित किया जाता है

मेले के संचालक ने बताया कि महामूर्ख मेला काव्य साहित्यिक जगत का अविरल मेला है. गंगा के तट पर सजने वाला महामूर्ख मेला इस सोच से आरंभ किया गया था कि आज हर कोई मूर्ख है. जीवन की सबसे बड़ी मूर्खता विवाह है और इसी के आधार पर बेमेल विवाह का आयोजन होता है. कवियों को उटपटांग उपहार देकर सम्मानित किया जाता है.

राकेश की रिपोर्ट

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