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मिट्टी की कला पर भारी पड़ रहा है मत्स्य पालन

 

संवाददाता मुदस्सिर हुसैन IBN NEWS मवई अयोध्या

मिट्टी के बर्तनों में जो स्वाद था, वह प्लास्टिक में कहां

कुम्हारों व कसगरो को भी दिया जाना चाहिए पट्टे के तालाब

27/10/2021 मवई अयोध्या – प्राचीन काल से मिट्टी कला विश्व प्रसिद्ध है। वहीं दूसरी तरफ मत्स्य पालन का कार्य भी सदियों से चलता था ।वर्तमान समय में चल रहा है ।और भविष्य काल में चलता रहेगा। सच्चाई के धरातल पर देखा जाए तो मिट्टी कला के सहारे हजारों परिवारों की जीविका चलती थी । जिस पर काफी समय से ग्रहण लग चुका है। मजेदार बात यह है कि मत्स्य पालन का व्यवसाय मिट्टी कला पर भारी पड़ रहा है । दीपावली का पर्व करीब आ चुका है ।दीपावली के पर्व पर मिट्टी के बर्तन की खरीददारी होती थी किन्तु आधुनिकता की चकाचौंध के चलते मिट्टी के बर्तन खरीदने की परम्परा अब समाप्त होती चली जा रही है।

दीपावली के समय बच्चे मिट्टी के खिलौने खरीदते थे। खास बात यह है कि दीपावली पर्व पर मिट्टी के दीप जलाए जाते हैं। मजेदार बात यह है कि विगत कई वर्षों से मिट्टी के बर्तन के दामों में भारी बढ़ोत्तरी के चलते दीपावली के पर्व पर अब मोमबत्ती जलाने की परम्परा बढ़ती चली जा रही है ।सच्चाई देखा जाए तो मिट्टी का बर्तन बनाने के लिए जो मिट्टी उपयोग में लाई जाती है। चिकनी और दोमट मिट्टी तथा काली मिट्टी से मिट्टी के बर्तन बनाए जाते हैं । लगभग तीन चार दशक पहले मिट्टी के बर्तन का कारोबार फल फूल रहा था। जबसे मत्स्य पालन के लिए बड़े पैमाने पर तालाबों का पट्टा दिया जाने लगा तभी से मिट्टी के बर्तन बनाने के लिए मिट्टी नहीं मिल पाती है ।जिसके परिणाम स्वरूप मिट्टी कला में भारी गिरावट दर्ज हो गई है ।

 

कुम्हार और कसगर परिवारों की जीविका का मुख्य साधन मिट्टी के बर्तन बनाना और बेचना था। जब से तालाबों का पट्टा मत्स्य पालन के लिए तेजी के साथ शुरू किया गया। तबसे मिट्टी के बर्तन बनाने के लिए उपयोगी मिट्टी नहीं मिल पाती है। पशुपालन के कार्य में भारी गिरावट के चलते मिट्टी बर्तन पकाने के लिए ईंधन की समस्या आकर खड़ी हो गई। कच्ची मिट्टी से बने बर्तन को पकाने के लिए गोबर से बने कंडे का उपयोग किया जाता है। कंडे की आग से मिट्टी का बर्तन बहुत अच्छी तरह से पक जाता है। कूढा सादात निवासी प्रेम और लल्लू का खुलेआम कहना है कि जब तक मिट्टी का बर्तन बनाने के लिए तालाब से मिट्टी मिलती थी तब तक मिट्टी का बर्तन बनाने का कार्य करके जीविकोपार्जन चलता था ।

 

लेकिन जब से तालाबों का पट्टा होने लगा तब से मिट्टी का बर्तन बनाने के लिए समुचित रूप से मिट्टी नहीं मिल पाती है ।इसी के कारण अब दूसरा व्यवसाय करके परिवार का पालन पोषण करना मजबूरी हो चुकी है। सच्चाई के धरातल पर देखा जाए तो मिट्टी के बर्तनों में कुज्जा, कुल्हड़, दियारी ,घडा, चकिया, बेलना ,तवा, कलश ,मटका आदि के बर्तन मिट्टी से बनाकर पकाने के बाद बेचा जाता था। विवाह के अवसर पर मिट्टी के बर्तन की जरूरत पड़ती थी ।धार्मिक कार्यक्रमों के अवसर पर मिट्टी के बर्तन की आवश्यकता पडती थी। वर्तमान समय में देखा जाए तो मिट्टी के दीपक की जगह मोमबत्ती ने ले लिया है ।वही कुल्हड़ और कुज्जा के स्थान पर प्लास्टिक के व फाइबर के गिलास उपयोग में आ रहे हैं। मिट्टी से बने खिलौने की जगह प्लास्टिक के खिलौने बाजार में खुलेआम बिक रहे हैं। बिजली की रोशनी से घर को सजाया जाने लगा है।

 

दीपावली के दिन विद्युत से जलने वाले झालर चमकते हैं ।मिट्टी के बर्तन में भोजन करने और पानी पीने से जहां एक तरफ स्वाद मिलता था। वहीं दूसरी तरफ सेहत के लिए भी अच्छा माना जाता था। आधुनिकता की चकाचौंध में जब से आलस ने प्रभाव दिखाया
तबसे फाइबर व प्लास्टिक के गिलास में चाय ,पानी ,व काफी इस्तेमाल किया जाने लगा है। जिसका सीधा असर खुलेआम सेहत पर पड़ रहा है। इन्सान तमाम बीमारियों का शिकार प्लास्टिक व फाइबर के बर्तन ,गिलास में गर्म चाय भोजन पीने से हो रहा है ।जो स्वाद मिट्टी के बर्तन में मिलता था वह अब प्लास्टिक के बर्तन व फाइबर के बर्तन प्रयोग करने से गायब हो चुका है।
सुझाव के तौर पर कहा जा सकता है कि कुम्हारों और कासगर परिवारों के सदस्यों के नाम तालाब का पट्टा किया जाना जरूरी हो गया है जिससे मिट्टी के बर्तन बनाने के लिए उपयोगी मिट्टी मिल सके।

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