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भोजशाला हिन्दू संस्कृति का गौरवशाली इतिहास

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आजकल हम जिस भोजशाला प्रकरण के विवाद की बात लगातार मीडिया और सोशल मीडिया के माध्यम से सुन रहे हैं उसका इतिहास लगभग १२०० वर्ष पुराना है इस भोजशाला के निर्माण का श्रेय मालवा व संपूर्ण मध्य भारत के परम प्रतापी व विद्वान राजा भोज को जाता है। राजा भोज के जन्म की कोई भी सटीक जानकारी भारतीय इतिहास में उपलब्ध नहीं है किन्तु किवदंति है कि उनका जन्म ९८० ई. में बसंत पंचमी के दिन महाराजा विक्रमादित्य की नगरी उज्जैन में हुआ था इसी कारण से कुछ इतिहासकार उन्हें विक्रमादित्य का वंशज भी कहते हैं,राजा भोज मात्र १५ वर्ष की आयु में ही अत्यंत तेजस्वी थे,इनके पिता का नाम राजा सिन्धुराज व माता का नाम सावित्री देवी था इनकी पत्नी का नाम लीलावती देवी था। राजा भोज का साम्राज्य वर्ष १००० ई. से १०५५ ई. तक रहा, राजा भोज परमार वंश के नौवें राजा थे, परमार वंश के राजाओं ने ८ वीं शताब्दी से लेकर १४ शताब्दी के पूर्वार्ध के समय तक राज्य किया। उन्होंने अपने कार्यकाल के समय अनेकों भीषण युद्ध लड़े और जीते, राजा भोज ने ही अपने शासन साम्राज्य में मध्यप्रदेश की राजधानी भोजपाल यानि वर्तमान के भोपाल को बसाया, राजा भोज अपनी युद्ध कला के लिए ही नहीं वरन अपने धार्मिक ज्ञान के लिए भी विश्व विख्यात थे। उन्होंने कोष रचना,धर्म,कला, औषधि शास्त्र, भवन निर्माण,खगोल विधा के साथ ही अनेकों काव्यों की भी रचना की थी,उन्होंने अपने राज्य में कई कवियों और विद्वानों को संरक्षण दिया, राजा भोज द्वारा रचित ८४ ग्रन्थ में से आज सिर्फ २१ ग्रन्थ ही उपलब्ध हैं । राजा भोज से सम्बंधित एक कहावत आज भी भारतवर्ष के घर-घर में प्रसिद्ध है कि ‘कहाँ राजा भोज और कहाँ गंगू तेली’ ये कहावत तब प्रसिद्ध हुई जब राजा भोज ने तेलंगाना के राजा तेलप और तिरहुत के राजा गांगेय देव को युद्ध में बुरी तरह पराजित किया था ।
मध्यप्रदेश में सांस्कृतिक गौरव के लगभग सभी स्थान राजा भोज की ही देन हैं जिनमे विश्वप्रसिद्ध भोजपुर मंदिर,महाकालेश्वर मंदिर,भोपाल का विशाल तालाब भुई और इस समय चर्चा का केंद्र बनी धार की भोजशाला सम्मिलित है, भोजशाला का निर्माण वर्ष १०३४ में राजा भोज के द्वारा माँ सरस्वती के मन्दिर और विश्वप्रसिद्ध संस्कृत अध्ययन केन्द्र के रूप में किया गया था किन्तु बीसवीं शदी के आरम्भिक दिनो से मध्य प्रदेश के धार में स्थित वर्तमान भोजशाला को विवादित कमाल मौला मस्जिद कहा जाने लगा है। माँ सरस्वती का यह भव्य मंदिर पूर्व की ओर मुख किये हुए बहुमंजिला आयताकर भवन है जो अपने वास्तु शिल्प के लिए विश्व भर में प्रसिद्ध है । महाराजा भोज माँ सरस्वती के वरदपुत्र थे। उनकी तपोभूमि धार नगरी में उनकी तपस्या और साधना से प्रसन्न हो कर माँ सरस्वती ने स्वयं प्रकट हो कर दर्शन दिए, माँ से साक्षात्कार के पश्चात उसी दिव्य स्वरूप को माँ वाग्देवी की प्रतिमा के रूप में अवतरित कर भोजशाला में स्थापित करवाया गया, जहाँ पर माँ सरस्वती की कृपा से महराजा भोज ने ६४ प्रकार की सिद्धियाँ भी प्राप्त की । उनकी अध्यात्मिक, वैज्ञानिक, साहित्यिक अभिरुचि, व्यापक और सूक्ष्म दृष्टी, प्रगतिशील सोच उनको दूरदर्शी तथा महानतम बनाती है । महाराजा भोज ने माँ सरस्वती के जिस दिव्य स्वरूप के साक्षात् दर्शन किये थे,उसी स्वरूप को महान मूर्तिकार मंथल ने निर्माण किया। भूरे रंग के स्फटिक से निर्मित माँ सरस्वती की प्रतिमा अत्यन्त ही चमत्कारिक, मनमोहक एव शांत मुद्रा वाली है, जिसमें माँ का अपूर्व सौंदर्य चित्ताकर्षक है। ध्यानस्थ अवस्था में वाग्देवी कि यह प्रतिमा विश्व की सबसे सुन्दर कलाकृतियों में से एक मानी जाती है ।
माँ सरस्वती का प्राकट्य स्थल भोजशाला हिन्दू जीवन दर्शन का सबसे बड़ा अध्ययन एवं प्रचार प्रसार का केंद्र भी था जहाँ देश विदेश के लाखों विद्यार्थियों ने १४०० प्रकाण्ड विद्वान आचार्यो के सानिध्य में अलौकिक ज्ञान प्राप्त किया । इन आचार्यो में भवभूति, माघ, बाणभट्ट, कालिदास, मानतुंग, भास्करभट्ट, धनपाल, बौद्ध संत बन्स्वाल, समुन्द्र घोष आदि विश्व विख्यात है । महाराजा भोज के पश्चात अध्यन अध्यापन का कार्य २०० वर्षो तक निरन्तर जारी रहा। माँ वाग्देवी के प्रगट्य स्थल पर सैकड़ों वर्षो से अविरत आराधना, यज्ञ, हवन, पूजन एवं तपस्वियों की साधना से भोजशाला सम्पूर्ण विश्व में सिद्ध पीठ के रूप में आस्था और श्रद्धा का केंद्र है । १२६९ ईसवी से ही इस्लामी आक्रंताओ ने अलग अलग तरीको से योजना पूर्वक भारत वर्ष के इस अध्यात्मिक और सांस्कृतिक मान बिंदु भोजशाला पर आक्रमण किये जिसे तत्कालीन हिन्दू राजाओ ने विफल कर दिया किन्तु सन १३०५ मे इस्लामी बादशाह अलाउद्दीन खिलजी ने भोजशाला पर आक्रमण कर दिया तथा भोजशाला के कुछ भाग को भी ध्वस्त किया। उसने आचार्यो की हत्या कर उन्हें यज्ञ कुण्ड में डाल दिया। राजा मेदनीराय ने वनवासी धर्मयोधाओ को साथ ले कर मुस्लिम आक्रान्ताओं को मार भगाया था । इसके बाद दिलावर खां गौरी ने १४०१ ई. में भोजशाला के एक भाग में कब्ज़ा कर जबरन वहाँ एक मस्जिद बनवा दी और इसके बाद महमूद शाह खिलजी ने १४५६ ई. में शेष भाग में मौलाना कमालुद्दीन के मकबरे और दरगाह का निर्माण करवा दिया,उसके बाद अंग्रेजो के शासन काल में वर्ष १९०२ में भोजशाला से माँ वाग्देवी की दुर्लभ प्रतिमा को अंग्रेज अधिकारी मेजर किनकैड अपने साथ इंग्लेंड ले गया, जो आज भी लन्दन के संग्रहालय में कैद है किन्तु इतना सब कुछ होने के बाद भी हिन्दू समुदाय की भक्ति और भावना अपने इस पावन तीर्थ के प्रति तब भी कम नहीं हुई है तब से हर बसंत पंचमी के दिन हिन्दू गर्भगृह में माँ सरस्वती की प्रतिमा रखकर पूजन करते रहे हैं । धार प्रशासन ने १९३५ में पहले मुसलमानों को सिर्फ शुक्रवार को ही नमाज पढने की अनुमति दी थी किन्तु २००३ में हिन्दू संगठनों की मांग पर प्रशासन ने मंगलवार के दिन और बसंत पंचमी के दिन हिन्दुओं को भी पूजा की अनुमति प्रदान की और मुस्लिमों को शुक्रवार को नमाज की अनुमति दी गयी,भोजशाला परिसर में दीवारों पर उकेरे गए देवी-देवताओं के चित्र और संस्कृत श्लोक नंगी आँखों से आज भी देखे जा सकते हैं ।
भोजशाला का ये विवाद सदियों से चला आ रहा है किन्तु हाल ही में हिन्दू फ्रंट फॉर जस्टिस की अध्यक्ष और उच्च न्यायालय लखनऊ की जानी मानी अधिवक्ता रंजना अग्निहोत्री व जन उद्घोष सेवा संस्थान के अध्यक्ष कुलदीप तिवारी के द्वारा मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय की इंदौर खंडपीठ में जनहित याचिका दायर कर मांग की गयी है कि भोजशाला एक हिन्दू मंदिर है अतः वहाँ मुस्लिम समाज को नमाज पढने से तुरंत रोका जाये साथ ही हिन्दू समाज को मंदिर में नियमित पूजा का अधिकार भी मिले। जिसमें न्यायालय ने पिछले बुधवार को याचिका को स्वीकार करते हुए जस्टिस विवेक रुसिया एवं जस्टिस अनिल वर्मा की युगल पीठ ने याचिकाकर्ता के वकील और सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता हरिशंकर जैन के तर्क सुनने के बाद केंद्र सरकार,राज्य सरकार,पुरातत्व विभाग,मौलाना कमालुद्दीन ट्रस्ट सहित अन्य पक्षकारों को नोटिस जारी कर जवाब माँगा है अब निर्णय भविष्य के गर्भ में है ।
लेखक
पं.अनुराग मिश्र ‘अनु’
स्वतंत्र पत्रकार/ राजनीतिक विश्लेषक

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