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थैलेसीमिया की रोकथाम के लिए जन्म से पहले बच्चे की जांच जरूरी

 

फरीदाबाद से बी.आर.मुराद की रिपोर्ट

फरीदाबाद:अमृता अस्पताल के एक प्रमुख डॉक्टर ने जानकारी देते हुए कहा कि थैलेसीमिया के मामले में सरकार और समाज का लक्ष्य इलाज के बजाय रोकथाम पर होना चाहिए। क्योंकि इस ब्लड डिसॉर्डर का इलाज बहुत महंगा और कष्टदाई है। अमृता अस्पताल के हेमेटोलॉजी और बीएमटी विभाग के प्रमुख डॉ(प्रो.)प्रवास मिश्रा ने कहा,आज समाज के सामने थैलेसीमिया की चुनौती का एकमात्र समाधान थैलेसीमिया बच्चे के जन्म से बचना है।

जब कोई महिला गर्भवती होती है तो उसे इस रोग की जांच करानी चाहिए। यदि वह कैरियर पाई जाती है तो पति का भी परीक्षण किया जाना चाहिए। यदि दोनों पॉजिटिव पाए जाते हैं, तो अजन्मे भ्रूण का परीक्षण आवश्यक है। यदि भ्रूण प्रभावित पाया जाता है,तो माता-पिता गर्भपात के विकल्प पर विचार कर सकते हैं और थैलेसीमिक बच्चे के जन्म को टाल सकते हैं।

चूंकि थैलेसीमिया एक आनुवंशिक रूप से फैलने वाली बीमारी है,बच्चा या तो थैलेसीमिक या कैरियर होगा। एक कैरियर बच्चा बीमारी से पीड़ित नहीं होता है। थैलेसीमिया एक आनुवंशिक ब्लड डिसऑर्डर है, जो माता-पिता दोनों से बच्चों में फैलता है,जिसके परिणामस्वरूप हीमोग्लोबिन कम हो जाता है,और शरीर की लाल रक्त कोशिकाएं,जो शरीर की सभी कोशिकाओं तक ऑक्सीजन ले जाती हैं,ठीक से काम नहीं कर पाती हैं।

इससे एनीमिया हो जाता है,जिससे रोगी को थकान या सांस लेने में तकलीफ महसूस होती है। गंभीर एनीमिया शरीर के अंगों को नुकसान पहुंचा सकता है। इसके अलावा,बार-बार रक्त चढ़ाने से आयरन की मात्रा बढ़ जाती है। जिसे यदि ढंग से मैनेज नहीं किया जाता है,तो यह अंगों को नुकसान पहुंचा सकता है। डॉ.(प्रो.) प्रवास मिश्रा ने कहा, थैलेसीमिया के बोझ को कम करना महत्वपूर्ण है।

थैलेसीमिया का एकमात्र स्थायी इलाज स्टेम-सेल ट्रांसप्लांट है,जो बहुत महंगा है,जिसकी कीमत 12-15 लाख रुपये है। यह भी तब संभव है,जब रोगी के परिवार में कोई मैचिंग डोनर मिल जाए,जो केवल 25-30% मामलों में होता है। बाकी मरीजों को असंबंधित डोनर को खोजने के लिए इंतजार करना पड़ता है। स्टेम सेल ट्रांसप्लांट करने का सबसे अच्छा समय रोगी के किशोरावस्था में प्रवेश करने से पहले का है।

बाद के वर्षों में शरीर में आयरन की अधिकता के कारण शरीर इलाज के प्रति कम रिस्पॉन्स देता है और ट्रांसप्लांट के दुष्प्रभाव भी ज्यादा होते हैं। थैलेसीमिया के मरीजों को बार-बार रक्त चढ़ाने की जरूरत पड़ती है और कभी-कभी तो महीने में कई बार ब्लड ट्रांसफ्यूज़न करना पड़ जाता है। डॉक्टर के मुताबिक,अच्छी गुणवत्ता और जितनी बार आवश्यक हो,उतनी बार रक्त मिलना एक बड़ी चुनौती है।

उन्होंने कहा,“कई थैलेसीमिया सोसायटी आज मौजूद हैं,जो रोगियों को स्थानीय ब्लड बैंकों और सरकारी मेडिकल कॉलेजों से जोड़कर उनकी मदद करने की कोशिश करती हैं,जहां उनका मुफ्त रक्त ट्रांसफ्यूज़न हो जाता है, लेकिन अभी भी अधिकांश रोगियों तक इसकी पहुँच नहीं है। थैलेसीमिया और सिकल सेल एनीमिया अब राष्ट्रीय कार्यक्रम का हिस्सा हैं,इसलिए इस बीमारी से निपटने के लिए सरकार में काफी जागरूकता है।

डॉ.(प्रो.) प्रवास मिश्रा के अनुसार,थैलेसीमिया आनुवंशिक रूप से अगली पीढ़ी में कैसे फैलता है,इस बारे में समाज में जागरूकता की कमी के कारण, आज भी माताओं को बच्चे का इस बीमारी से पीड़ित होने के लिए दोष मिलता है। उन्होंने आगे कहा,“भारत में महिलाओं को बच्चों से संबंधित किसी भी चीज़ के लिए सबसे अधिक दोष दिया जाता है,चाहे वह बेटे को जन्म देने में असमर्थता हो,या किसी स्वास्थ्य समस्या या मानसिक विकार से पीड़ित बच्चे हों।

थैलेसीमिया के लिए भी यही सच है। कई महिलाएं स्वस्थ बच्चे को जन्म न देने के लिए खुद को जिम्मेदार भी ठहराती रहती हैं। लोगों को यह एहसास नहीं है कि थैलेसीमिया के साथ पैदा होने वाले बच्चे के लिए,माता-पिता दोनों को स्वयं थैलेसीमिया रोगी या थैलेसीमिया जीन के वाहक होने की आवश्यकता होती है। बच्चे को बीमारी के लिए एक नहीं बल्कि माता-पिता दोनों से दोषपूर्ण जीन होना जरूरी होता है।

इसलिए बच्चों में थैलेसीमिया के लिए मां को दोष देना,खासकर छोटे शहरों और कस्बों में अज्ञानता और सामाजिक पूर्वाग्रहों का परिणाम है। भारत में थैलेसीमिया वाले बच्चों की संख्या दुनिया में सबसे अधिक 1 से लेकर 1.5 लाख तक है। देश में हर साल थैलेसीमिया वाले लगभग 10 से 15 हजार बच्चे पैदा होते हैं।

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