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पांचवें दिन रामलीला मे दशरथ मरण, भरत मिलन, शूर्पणखा की संवाद आदि वर्णन किया गया

रामलीला राम वनवास का वर्णन उनके चरित्र आदर्शों , आदेश ,आज्ञा सर्वोपरि आदि के बारे मे बताया ग्रामीण लोग रामायण के संवादो तमन्यता सुन रहे

बीगोद–कस्बे के बालाजी का चौक मे आदर्श रामलीला कमेटी द्वारा पांचवें दिन दशरथ मरण, भरत मिलन, शूर्पणखा संवाद का वर्णन किया गया। जिसमें दशरथ के रूप मे माधव कीर्. ,राम- के किरदार मे दुर्गा लाल नायक. लक्ष्मण के रूप मे सत्तू तेली, भरत के रुप मे अर्जुन सोनी, शत्रुघ्न के रुप मे हेमराज सुथार, मंथरा के रूप मे श्यामलाल सुथार, निषादराज के रूप मे सुरेश सोनी द्वारा रामायण के प्रसंगों का सजीव चित्रण किया गया जिसमे बताया कि महाराज दशरथ अपने सबसे बड़े पुत्र राम को राजा बनाने का निर्णय लेते हैं। इस निर्णय से प्रजा, राजा दरबार के पदाधिकारी, सभी प्रसन्न होते हैं। परन्तु इस दौरान महारानी कैकयी की दासी मंथरा इस संबंध में कैकयी के मन में विष घोलती हैं और राम को राजा न बनने देने के लिए कैकयी को उकसाती व जहर गोलती है वैसे तो महारानी कैकयी राम से बहुत प्रेम करती थी, परन्तु वे उस समय मंथरा की बातों में आ जाती हैं महाराज दशरथ को विवश कर देती कि वे भगवान राम को 14 वर्षों का वनवास दें और भरत को राज्य दे. महाराज दशरथ को भी विवशता के कारण ये निर्णय लेनें पड़े इस दौरान राम धर्मपत्नि सीता और छोटे भाई लक्ष्मण के साथ वन की ओर चल दिये जब ये सब घटनाएँ हो रही थी, तब राजकुमार भरत और राजकुमार शत्रुघ्न अपने नानाजी के घर गये हुए थे. उन्हें इन सब घटनाओं के बारे में कोई जानकारी नहीं थी इस दौरान पुत्र राम के वियोग में महाराज दशरथ की मृत्यु हो गयी। और ये दुखद समाचार सुनकर जब राजकुमार भरत और राजकुमार शत्रुघ्न वापस आए, तो उन्हें अपने बड़े भाई भगवान राम के साथ घटित हुई इस घटना के बारे में पता चला. उनके ऊपर मानो दुखों का पहाड़ ही टूट पड़ा आसू धारा नैत्रों से बहने लगी भरतजी मार्मिक हृदय वाले जानते और समझते थे कि अयोध्या राज्य पर अधिकार उनके बड़े भाई राम का हैं और उनसे यह अधिकार छीनकर माता कैकयी ने भरत को यह अधिकार दिलाया हैं. साथ ही साथ वे अपने माता कैकयी से भगवान राम के प्रति किये गये उनके दुर्व्यवहार के लिए रुष्ट भी जिस कारण भला बुरा भी बोलते हैं. इन सभी भावनाओं से घिरे होने के कारण और भगवान राम को वापस अयोध्या लाने के लिए वे अपने बड़े भाई भगवान राम से मिलने का निश्चय करते हैं. राजकुमार भरत को यह पता चलता है कि प्रभु श्री राम अपने छोटे भाई लक्ष्मण और पत्नि सीता के साथ चित्रकूट में ठहरे हुए हैं, तब राजकुमार भरत तुरंत ही उनसे मिलने के लिए चित्रकूट की ओर प्रस्थान करते हैं. उनके साथ इस दौरान उनका सैन्य दल भी था। वे यह सुनिश्चित करना चाहते थे कि कहीं बड़े भाई श्री राम को कोई क्षति न पहुंचा सकें, इसीलिए उनकी सुरक्षा हेतु वे सैनिकों के साथ जाते हैं.
वहीं दूसरी ओर चित्रकूट में भगवान श्री राम, लक्ष्मणजी और माता सीता अपनी कुटिया के बाहर शांति पूर्वक बैठे हुए हैं. तभी उन्हें कहीं से पदचाप आवाज और धूल उड़ती हुई दिखायी देती हैं। तभी कोई वनवासी उन्हें यह समाचार देता हैं कि “राजकुमार भरत अपनी सेना के साथ चित्रकूट पधार रहे हैं और जल्दी ही वे यहाँ पहुँच जाएँगे.”
यह समाचार सुनकर लक्ष्मणजी बहुत क्रोधित हो जाते हैं और प्रभु श्री राम से कहते हैं कि “जैसी माता, वैसा पुत्र”. राजकुमार भरत अपनी सेना के साथ आप पर हमला करने आ रहे हैं, वह यह सोचते हैं कि आप वन में अकेले हैं, हमारे पास कोई सैन्य शक्ति नहीं हैं तो वे आसानी से हमें मारकर अयोध्या का राज्य हड़प लेंगे. तब मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम लक्ष्मणजी को समझाते हुए कहते हैं कि “शांत हो जाओ लक्ष्मण, भरत ऐसा नहीं हैं, उसके विचार बहुत ही उच्च हैं और उसका चरित्र बहुत ही अच्छा हैं, बल्कि वो तो स्वप्न में भी अपने भाई के साथ ऐसा कुछ नहीं कर सकता”. इस पर भी लक्ष्मणजी का क्रोध शांत नहीं होता और वे कहते हैं कि राजकुमार भरत अपने उद्देश्य में कभी सफल नहीं होंगे और जब तक लक्ष्मण जीवित हैं. राजकुमार भरत अपने बड़े भाई राम से मिलने को आतुर हैं और इसी कारण वे अपनी सेना में सबसे आगे चल रहे हैं और उनके साथ तीनों माताएँ, कुल गुरु, महाराज जनक और अन्य श्रेष्ठी जन भी हैं. ये सभी मिलकर प्रभु श्री राम को वापस अयोध्या ले जाने के लिए आये हैं. जैसे ही राजकुमार भरत अपने बड़े भाई श्री राम को देखते हैं, वे उनके पैरों में गिर जाते हैं और उन्हें दण्डवत प्रणाम करते हैं, साथ ही साथ उनकी आँखों से अविरल अश्रुधारा बहती हैं. भगवान राम भी दौड़ कर उन्हें ऊपर उठाते हैं और अपने गले से लगा लेते हैं, दोनों ही भाई आपस में मिलकर भाव विव्हल हो उठते हैं, अश्रुधारा रुकने का नाम ही नहीं लेती और ये दृश्य देखकर वहाँ उपस्थित सभी लोग भी भावुक हो जाते हैं. तब राजकुमार भरत पिता महाराज दशरथ की मृत्यु का समाचार बड़े भाई श्री राम को देते हैं और इस कारण श्री राम, माता सीता और छोटा भाई लक्ष्मण बहुत दुखी होते आंखों से अश्रु धारा बहने लगती है फिर भगवान राम नदी के तट पर अपने पिता महाराज दशरथ को विधी – विधान अनुसार श्रद्धांजलि देते हैं और अपनी अंजुरी में जल लेकर अर्पण करते हैं।

अगले दिन जब भगवान राम, भरत, आदि पूरा परिवार, महाराज जनक और सभासद, आदि बैठे होते हैं तो भगवान राम अपने अनुज भ्राता भरत से वन आगमन का कारण पूछते हैं. तब राजकुमार भरत अपनी मंशा उनके सामने उजागर करते हुये कहते कि वे राम का वन में ही राज्याभिषेक करके उन्हें वापस अयोध्या ले जाने के लिए आए हैं और अयोध्या की राज्य काज संबंधी जिम्मेदारी उन्हें ही उठानी हैं, वे ऐसा कहते हैं. महाराज जनक भी राजकुमार भरत के इस विचार का समर्थन करते हैं. परन्तु श्री राम ऐसा करने से मना कर देते हैं, वे अयोध्या लौटने को सहमत नहीं होते क्योंकि वे अपने पिता को दिए वचन के कारण बंधे हुए हैं. राजकुमार भरत, माताएँ और अन्य सभी लोग भगवान राम को इसके लिए मनाते हैं, परन्तु वचन बद्ध होने के कारण भगवान श्री राम ऐसा करने से मना कर देते हैं. तब राजकुमार भरत बड़े ही दुखी मन से अयोध्या वापस लौटने के लिए प्रस्थान करने की तैयारी करते हैं, परन्तु प्रस्थान से पूर्व वे अपने भैया राम से कहते हैं कि “अयोध्या पर केवल श्री राम का ही अधिकार हैं और केवल वनवास के 14 वर्षों की समय अवधि तक ही मैं उनके राज्य का कार्यभार संभालूँगा और इस कार्य भार को सँभालने के लिए आप  मुझे आपकी चरण – पादुकाएं मुझे दे दीजिये, मैं इन्हें ही सिंहासन पर रखकर, आपको महाराज मानकर, आपके प्रतिनिधि के रूप में 14 वर्षों तक राज्य काज पूर्ण करुंगा, परन्तु जैसे ही 14 वर्षों की अवधि पूर्ण होगी, आपको पुनः अयोध्या लौट आना होगा अन्यथा मैं अपने प्राण त्याग दूंगा.”

राजकुमार भरत के ऐसे विचार सुनकर और उनकी मनःस्थिति को देखकर राजकुमार लक्ष्मण को भी उनके प्रति अपने क्रोध पर पश्चाताप होता हैं कि उन्होंने इतने समर्पित भाई पर किस प्रकार संदेह किया और उन्हें इन दुखी घटनाओं के घटित होने का कारण समझा. भगवान श्री राम भी अपने छोटे भाई भरत का अपार प्रेम, समर्पण, सेवा भावना और कर्तव्य परायणता देखकर उन्हें अत्यंत ही प्रेम के साथ अपने गले से लगा लेते हैं. वे अपने छोटे भाई राजकुमार भरत को अपनी चरण पादुकाएं देते हैं और साथ ही साथ भरत के प्रेम पूर्ण आग्रह पर ये वचन भी देते हैं कि जैसे ही 14 वर्षों की वनवास की अवधि पूर्ण होगी, वे अयोध्या वापस लौट आएंगे. अपने बड़े भाई श्री राम के इन वचनों को सुनकर राजकुमार भरत थोड़े आश्वस्त होते हैं और उनकी चरण पादुकाओं को बड़े ही सम्मान के साथ अपने सिर पर रखकर बहुत ही दुखी मन से अयोध्या की ओर प्रस्थान करते हैं. अन्य सभी परिवार जन भी एक – दूसरे से बड़े ही दुखी मन से विदा लेते हैं। वनवास के दौरान जंगल में सुपर्णखा सुंदर रूप धरकर प्रभु के पास जाकर और बहुत मुस्कुरा कर बोली मैं तो तुम्हारे सामान कोई पुरुष है ना मेरे समान स्त्री है विधाता ने यह सहयोग जोड़ा बहुत विचार कर रचा है मैंने तीनों लोगों में खोज देखा इसी से अब तक अविवाहित रही अब तुमको देखकर कुछ मन माना चित ठहरा। सीता जी की ओर देखकर प्रभु श्री राम ने यह बात कही कि मेरा छोटा भाई कुमार है तब वह लक्ष्मण जी के पास गई लक्ष्मण जी ने उसे शत्रु की बहन समझ कर और प्रभु की और देख कर कोमल वाणी से बोले हे सुंदरी सुन मैं तो उनका दास हूं मैं पराधीन हूं अब तुम्हें सुभीता( सुख) न होगा प्रभु समर्थ है कोसीपुर के राजा है वह जो कुछ करें उन्हें सब फबता है वे लौटकर फिर श्री राम जी के पास आई प्रभु ने उसे फिर लक्ष्मण जी के पास भेज दिया लक्ष्मण जी ने कहा तुम्हें वही करेगा जो लज्जा को तरण तोड़कर त्याग देगा। तब वह खिसयायी हुई कुद्र होकर श्री राम जी के पास कहीं और उसे अपना बैंक का रूप प्रकट किया पिताजी को बेबी देखकर श्री रघुनाथ जी ने लक्ष्मण को इशारा देख कर कहा लक्ष्मण जी ने बड़ी फुर्ती से को बिना नाक कान कर दिया मानो उसके हाथ रावण को चुनौती दे दी। इन प्रसंगों रामलीला संजीवन चित्रण किया जा रहा इस दौरान ग्रामीण महिलाएं, पुरूष बहुत ध्यान से ग्रहण कर रहे। (फोट़ो कैप्सन-
1- राम व भरत मिलन का दृश्य
2– भरत के किरदार मे)
फोटो प्रमोद कुमार गर्ग

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