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राष्ट्रपिता गांधी जी Vs. राष्ट्रपुत्र सावरकर जी

 

यह हम सब भारतीयों का दायित्व व कर्तव्य है कि वीर सावरकर व अन्य जिनके बलिदानों से हम आज़ाद हुए है उनके बारे में पढ़ें और अगली पीढ़ी को उनके बारे में बताएं।
विद्वान लेखक श्री उदय महुरकर जी के पुस्तक के विमोचन के बाद एक वार फिर सावरकर जी चर्चा में है…

हमारे देश के इतिहासकारों ने जिस चश्मे से वीर सावरकर की क्षमा याचिका को देखा, उस चश्मे से कभी महात्मा गांधी के फैसलों का अध्ययन नहीं किया और आज भी हमारे देश में यही हो रहा है…
हमारे देश में एक खास वर्ग ऐसा है जो स्वतंत्रता सेनानी वीर सावरकर को कायर साबित करने पर तुला हुआ है. ये वो वर्ग है जो महात्मा गांधी को धर्म निरपेक्ष मानता है और सावरकर को सांप्रदायिक मानता है. आजादी के 70 वर्षों तक इस वर्ग ने वीर सावरकर को इतिहास की किताबों में जगह नहीं मिलने दी. अब वीर सावरकर को लेकर ऐसा ही एक नया विवाद शुरू हो गया है. ये विवाद इस दावे पर है कि वीर सावरकर ने महात्मा गांधी के कहने पर अंग्रेजों से माफी मांगी थी।

सावरकर को लेकर विवाद क्यों?

सावरकर से नफरत करने वाले खास वर्ग से सावरकर और महात्मा गांधी की दोस्ती बर्दाश्त नहीं हो रही और वो इस थ्योरी को गलत ठहरा रहे हैं कि महात्मा गांधी ने कभी वीर सावरकर की मदद करने की कोशिश की थी. इतिहास के तथ्य यह बताते हैं कि सावरकर और महात्मा गांधी के बीच कैसे संबंध थे. 1920 में महात्मा गांधी ने एक लेख भी लिखा था, जिसमें उन्होंने सावरकर का समर्थन किया और अंग्रेजों से उन्हें छोड़ देने की अपील की थी. ये इतिहास के वो तथ्य हैं जो आपको स्कूल और कॉलेजों में कभी नहीं पढ़ाए गए.

‘महात्मा गांधी के कहने पर मांगी थी माफी’

ताजा विवाद केन्द्रीय रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के एक बयान के बाद शुरू हुआ, जिसमें उन्होंने ये कहा कि अंग्रेजी सरकार से माफी मांगने की सलाह वीर सावरकर को महात्मा गांधी ने ही दी थी. ये बातें उन्होंने उदय माहूरकर और चिरायु पंडित की पुस्तक, जिसका शीर्षक है ‘Veer Savarkar: The Man Who Could Have Prevented Partition’ के विमोचन कार्यक्रम में कहीं. इस दौरान उन्होंने कहा, ‘सावरकर के खिलाफ झूठ फैलाया गया कि अंग्रेजों से अपने लिए मर्सी पिटीशन फाइल की थी. गांधी ने भी कहा था कि जैसे हम आजादी कि कोशिश कर रहे हैं उसी तरह सावरकर भी आजादी के लिए प्रयास कर रहे हैं. सावरकर ने जेल में सजा काटते हुए अंग्रेजों से माफी महात्मा गांधी के कहने पर मांगी थी. सावरकर एक प्रखर क्रांतिकारी थे और हैं लेकिन सावरकर पर लेनिनवादी मार्क्सवादी विचार के लोग आरोप लगाते हैं.’

महापुरुषों पर राजनीति कितनी सही?

हर देश के अपने आदर्श पुरुष और महापुरुष होते हैं और वहां के लोग इन महापुरुषों में आस्था रखते हैं, इन्हें लेकर विवाद और राजनीति नहीं करते लेकिन हमारे देश में महापुरुषों को लेकर विवाद भी होते हैं और उन्हें लेकर भ्रम की स्थिति भी बनाई जाती है. अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ने वाले क्रांतिकारी विनायक दामोदर सावरकर की भूमिका को लेकर आज भी वैचारिक संघर्ष हो रहा है लेकिन आज हम आपको तथ्यों के साथ उनका सही और सच्चा इतिहास बताएंगे. वीर सावरकर ने काला पानी की सजा के दौरान कुल 6 क्षमा याचिका अंग्रेजी सरकार को भेजी थीं, जिनमें पांच याचिकाएं 1911 से 1919 के बीच भेजी गईं जबकि एक याचिका 1920 में महात्मा गांधी के सुझाव पर भेजी गई लेकिन हमारे देश के कुछ लोग ये तर्क दे रहे हैं कि महात्मा गांधी जब वर्ष 1915 में दक्षिण अफ्रीका से भारत आए थे तो उन्होंने वीर सावरकर को माफी मांगने की सलाह कैसे दे दी? यानी इस मामले में हो ये रहा है कि दो अलग-अलग घटनाक्रम को एक साथ जोड़ कर देखा जा रहा है. एक घटनाक्रम वर्ष 1911 से 1919 के बीच का है और दूसरा घटनाक्रम 1919 से 1921 के बीच का है.

अंग्रेजों ने क्यों खारिज की थी याचिका?

वीर सावरकर को पहली बार वर्ष 1909 में लंदन से गिरफ्तार किया गया था. उन पर महाराष्ट्र के नासिक में ब्रिटिश जिला कलेक्टर A.M.T. Jackson की हत्या का षडयंत्र रचने का आरोप था. उन पर ये भी आरोप था कि उन्होंने ब्रिटिश सरकार के खिलाफ विद्रोह भड़का कर युद्ध जैसी स्थिति पैदा करने की कोशिश की. यानी इससे ये तो साबित हो जाता है कि अंग्रेजी सरकार उस समय उन्हें अपना सबसे बड़ा दुश्मन मानती थी और वो भारत के लोगों के लिए सबसे बड़े क्रान्तिकारी थे. महात्मा गांधी से भी बड़े, क्योंकि तब महात्मा गांधी दक्षिण अफ्रीका से भारत नहीं आए थे. लंदन से गिरफ्तारी के बाद उन्हें वर्ष 1911 में अंडमान निकोबार द्वीप की सेलुलर जेल में भेजा था, जिसे तब काला पानी की जेल या काला पानी की सजा भी कहा जाता था. इस सजा के दौरान वीर सावरकर को भयानक यातनाएं दी गईं, जिसके बाद उन्होंने 30 अगस्त 1911 को अंग्रेजी सरकार को पहली चिट्ठी लिखी और अपनी सजा माफ करने की गुहार लगाई लेकिन 3 दिन बाद ही इस याचिका को खारिज कर दिया गया.

माफीनामे पर इतिहासकारों में भी मतभेद

इसके बाद 14 नवंबर 1913 को उन्होंने एक और याचिका दायर की, जिसमें उन्होंने अंग्रेजी सरकार के प्रति विद्रोह ना करने का भरोसा दिलाया हालांकि इस चिट्ठी को सिर्फ एक माफीनामा माना जाए या फिर युद्ध की रणनीति, इसे लेकर इतिहासकारों में मतभेद हैं. क्योंकि सावरकर जानते थे कि जेल में कैद रह कर क्रान्ति नहीं लाई जा सकती और इसके लिए बाहर निकलना बहुत जरूरी है. उन्होंने 10 वर्षों तक काला पानी की भयानक सजा काटी और इस दौरान कुल 6 क्षमा याचिका अंग्रेजी सरकार को भेजीं. इनमें 1911 से 1919 तक 5 चिट्ठियां लिखी गईं.

जब पहले विश्व युद्ध के बाद जारी हुआ ऑर्डर

वर्ष 1919 में पहले विश्व युद्ध के बाद ब्रिटेन के किंग जॉर्ज 5th ने एक ऑर्डर जारी किया था, जिसके तहत जेलों में बन्द सभी राजनीतिक कैदियों को माफ कर दिया गया था. ये उस समय ब्रिटेन का भारत के लोगों को एक तोहफा था, क्योंकि पहले विश्व युद्ध के दौरान महात्मा गांधी समेत कई नेताओं ने अंग्रेजों के साथ वफादारी की कसमें खाई थीं. इस आदेश के तहत तब अंडमान की सेलुलर जेल से भी कई कैदी रिहा हुए, लेकिन अंग्रेजी सरकार ने तय किया कि वो वीर सावरकर और उनके बड़े भाई गणेश दामोदर सावरकर को सजा से माफी नहीं देगी.

नारायण राव सावरकर ने गांधी को लिखी चिट्ठी-

इसके बाद सावरकर के छोटे भाई नारायण राव सावरकर ने 18 जनवरी 1920 को महात्मा गांधी को एक चिट्ठी लिखी, जिसका जिक्र विक्रम संपथ ने अपनी पुस्तक ‘Savarkar: Echoes from a Forgotten Past’ के पेज नंबर 359 पर किया है. इसमें वो लिखते हैं कि 17 जनवरी 1920 को उन्हें भारत सरकार से ये जानकारी मिली कि जिन राजनीतिक कैदियों को अंडमान की सेलुलर जेल से छोड़ा जा रहा है, उनमें सावरकर और उनके बड़े भाई नहीं हैं. ये साफ हो गया है कि सरकार उन्हें जेल से रिहा नहीं करेगी. वो महात्मा गांधी से कहते हैं कि ऐसी स्थिति में उन्हें आगे क्या करना चाहिए, वो इसमें उनकी मदद करें. इसी में वो ये भी लिखते हैं कि सावरकर लगभग 10 साल से काला पानी की सजा काट रहे हैं और उनका स्वास्थ्य बहुत खराब है और उनका वजन भी घट कर 45 किलोग्राम हो गया है. आखिर में वो लिखते हैं कि उन्हें उम्मीद है कि महात्मा गांधी इस मामले में उनकी मदद करेंगे.

गांधी ने सावरकर के भाई को दिया था ये सुझाव-

एक हफ्ते बाद महात्मा गांधी ने 25 जनवरी 1920 को इस चिट्ठी का जवाब दिया. इसमें वो लिखते हैं कि मुझे तुम्हारी चिट्ठी मिल चुकी है. इस मामले में कोई भी सलाह देना मुश्किल है लेकिन मैं तुम्हें एक सुझाव दूंगा कि तुम एक विस्तृत याचिका तैयार करो, जिसमें तथ्यों को इस तरह से पेश किया गया हो, जिससे वीर सवारकर राजनीतिक कैदी साबित हो जाएं. इससे लोगों का ध्यान भी इस मामले पर जाएगा. महात्मा गांधी के इस सुझाव के बाद ही वीर सावरकर ने अपनी छठी और आखिरी याचिका अंग्रेजी सरकार को भेजी थी, जिसे बाद में बाकी याचिकाओं की तरह खारिज कर दिया गया था. 25 जनवरी की अपनी चिट्ठी में महात्मा गांधी ने वीर सावरकर के छोटे भाई को एक और बात लिखी थी. उन्होंने कहा था कि जैसा मैं तुम्हें पहले भी बता चुका हूं कि मैं भी इस दिशा में पहले से काम कर रहा हूं. यानी महात्मा गांधी भी सावरकर की रिहाई की कोशिशें कर रहे थे. इसके लिए उन्होंने 26 मई 2020 को Young India अखबार में एक लेख लिखा था, जिसका शीर्षक था ‘Savarkar Brothers’.

सावरकर और गांधी की दोस्ती कितनी पुरानी?

यंग इंडिया के लेख में महात्मा गांधी ने लिखा था कि ये पूरी तरह स्पष्ट है कि हिंसा के जो आरोप वीर सावरकर और उनके बड़े भाई पर लगे हैं, वो साबित नहीं हुए हैं और उन्हें ब्रिटेन के King George Fifth के आदेश पर छोड़ देना चाहिए. वीर सावरकर और महात्मा गांधी एक दूसरे को पहले से जानते थे. वर्ष 1906 में जब सावरकर लंदन में कानून की पढ़ाई कर रहे थे और वहां इंडियन हाउस में रहते थे, जो एक तरह का हॉस्टल था तब महात्मा गांधी उनसे मिलने के लिए वहां गए थे. उस समय का एक किस्सा है कि सावरकर ने रात के खाने में मांसाहार बनाया था, जिसे देख कर गांधी कांपने लगे थे. गांधी की भाव भंगिमा देख कर वीर सावरकर ने उनसे कहा था कि उन्हें तो ऐसे लोग चाहिए जो अंग्रेजों को जिंदा खा जाएं, तुम तो सिर्फ मांसाहार देख कर ही डर गए. इस कथन से आप सावरकर की वीरता का अन्दजा लगा सकते हैं.

जीवन के 28 साल भयानक यातनाओं में गुजारे-

वीर सावरकर कुल 15 वर्षों तक जेल में रहे, जिनमें 10 साल उन्होंने काला पानी की सजा काटी, जो सबसे भयानक जेल मानी जाती थी. इसके अलावा वो महाराष्ट्र के रत्नागिरि जिले में 13 साल तक नजरबन्द भी रहे. सोचिए, जिस स्वतंत्रता सेनानी ने देश की आजादी के लिए अपने लगभग 28 साल भयानक यातानाओं में गुजारे, क्या उनकी देशभक्ति पर शक किया जा सकता है? दुर्भाग्य की बात ये है कि काला पानी की सजा काटने वाले वीर सावरकर को तो हमारे देश का एक वर्ग कायर बताता है, लेकिन जिन नेताओं ने स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान अपनी मनपसंद जेल में तमाम सुविधाओं के साथ दिन बिताए, उन्हें वीर क्रान्तिकारी बताया जाता है. इनमें जवाहर लाल नेहरू भी हैं, जिन्हें गिरफ्तार करके ऐसे जेलों में रखा जाता था जहां उन्हें सारी सुविधाएं दी जाती थीं. उन्हें पढ़ने के लिए अंग्रेजी सरकार पुस्तकें भी देती थी. इस पूरे मुद्दे पर उनके पोते रंजीत सावरकर की भी प्रतिक्रिया आई है, जिन्होंने ये कहा कि वो महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता के रूप में नहीं मानते….
इतिहास में कई बार महापुरुषों ने अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए अलग-अलग रणनीति अपनाई. जैसे वीर सावरकर ने अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ने के लिए जेल से बाहर निकलने की कोशिशें कीं, वैसे ही महात्मा गांधी ने भी अंग्रेजों के प्रति वफादारी की कसम खा कर आजादी पाने का सपना देखा था. अंग्रेजों ने महात्मा गांधी को ये भरोसा दिलाया था कि अगर भारत के लोग पहले विश्व युद्ध में अंग्रेजों का साथ देंगे तो वो भारत को आजाद करने पर विचार करेंगे. इसके लिए अंग्रेजों ने कांग्रेस पार्टी के नेताओं से ये अपील की थी कि भारत के जवानों को अंग्रेजों की सेना में भर्ती करवाया जाए जिसके बाद महात्मा गांधी ने खुद ये जिम्मेदारी ली और भारत के लोगों से अंग्रेजों की सेना में भर्ती होने की अपील की. महात्मा गांधी ने भारत के उस समय के वायसराय लॉर्ड चेम्सफोर्ड को एक पत्र लिख कर ये भी कहा था कि मैं ब्रिटिश राष्ट्र से प्यार करता हूं और मैं हर भारतीय में अंग्रेजों के प्रति वफादारी पैदा करना चाहता हूं…

दोहरा मापदंड क्यों?

लेकिन हमारे देश के डिजायनर इतिहासकारों ने जिस चश्मे से वीर सावरकर की क्षमा याचिका को देखा, उस चश्मे से कभी महात्मा गांधी के फैसलों का अध्ययन नहीं किया और आज भी हमारे देश में यही हो रहा है. सोचिए इस देश को आजाद कराने के लिए जिन वीर क्रान्तिकारियों ने दशकों तक अत्याचार सहा, आज उन्हीं पर हमारे देश में गन्दी राजनीति हो रही है. सावरकर पर नई पुस्तक लिखने वाले उदय माहूरकर का भी यही कहना है कि गांधी की ही सलाह पर सावरकर ने 1920 में क्षमा याचिका दायर की थी. उन्होंने ये भी बताया कि हमारे देश का एक वर्ग कांग्रेस से इतना चिढ़ता क्यों है?

रूस के क्रांतिकारियों से सीखे क्रांति के तरीके-

1906 से 1910 के बीच वीर सावरकर लंदन में कानून के छात्र थे. उस दौरान उन्होंने रूस के क्रांतिकारियों से क्रांति के तरीके सीखे थे. वर्ष 1906 से 1910 के बीच ही सावरकर ने एक किताब लिखी ‘The Indian War of Independence, 1857’. इस किताब में उन्होंने 1857 के विद्रोह को अंग्रेजों के खिलाफ पहला स्वतंत्रता संग्राम कहा था. अंग्रेजों ने इस किताब पर प्रतिबंध लगा दिया था. मार्च 1910 में वीर सावरकर को ब्रिटिश सरकार के खिलाफ हिंसा और युद्ध भड़काने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया था. वीर सावरकर पर भारत में मुकदमा चलाया गया. वर्ष 1911 में सावरकर को अंडमान द्वीप में कालापानी की सजा दी गई. सावरकर को अंडमान द्वीप ले जाया गया जहां उन्हें भयंकर यातनाएं दी गईं. करीब 10 वर्ष तक उन्हें कालापानी में अंग्रेजों के अत्याचार झेलने पड़े. वर्ष 1921 में अंग्रेजों ने उन्हें रिहा करके दोबारा भारत भेज दिया लेकिन भारत में भी उन्हें वर्ष 1924 तक नजरबंद रखा गया.

सावरकर ने दिया ‘हिंदुत्व’ शब्द-

वर्ष 1923 में जेल में रहते हुए वीर सावरकर ने एक किताब लिखी ‘Hindutva: Who Is a Hindu?’ आज की राजनीति में आप बार-बार हिंदुत्व शब्द सुनते हैं. इस शब्द की रचना वीर सावरकर ने ही की थी. वर्ष 1924 के बाद उन्हें नजरबंदी से रिहा तो किया गया लेकिन उन्हें रत्नागिरी से बाहर जाने की इजाजत नहीं थी. अंग्रेजों की नजरबंदी से रिहा होने के बाद वीर सावरकर ने अपना ध्यान हिंदुओं को एकता के सूत्र में बांधने और हिंदू नवजागरण पर लगाया. उन्होंने हिंदू धर्म में छुआ-छूत खत्म करने के लिए अभियान चलाए और अनुसूचित जाति और सवर्ण जातियों के लोगों के सह-भोज यानी एक साथ भोजन करने पर विशेष जोर दिया. वर्ष 1937 में जब वो पूरी तरह रिहा हुए तब वो हिंदू महासभा के प्रेसीडेंट बने. वर्ष 1948 में नाथूराम गोडसे ने महात्मा गांधी की हत्या की. इस हत्या का आरोप वीर सावरकर पर भी लगा लेकिन पर्याप्त सबूत नहीं होने की वजह से उन्हें रिहा कर दिया गया. राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने वीर सावरकर को अपने आदर्श पुरुषों में शामिल किया है. पहले जनसंघ और बाद में भारतीय जनता पार्टी ने वीर सावरकर को अपना आदर्श पुरुष माना…
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी भी वीर सावरकर से काफी प्रभावित थे. वीर सावरकर के सम्मान में अटल बिहारी वाजपेयी ने एक कविता भी लिखी थी. इस कविता की पंक्तियां कुछ इस प्रकार थीं-
याद करें काला पानी को,
अंग्रेजों की मनमानी को,
कोल्हू में जुट तेल पेरते,
सावरकर से बलिदानी को…. © डॉ. शैलेश सिंह (लेखक, स्वतंत्र स्तम्भकार एवं विधि प्राध्यापक- गोरखपुर विश्वविद्यालय, गोरखपुर)

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