मोहर्रम पर विशेष
मुदस्सिर हुसैन IBN NEWS
अयोध्या – इस्लाम धर्म में इस्लाम के मानने वालो का नया साल मुहर्रम से शुरू होता है। यह महीना मुस्लिम समुदाय के लिए बेहद खास और फजीलत वाला है। इस्लामिक कैलेंडर के अनुसार मुहर्रम हिजरी संवत् का प्रथम मास है। पैगंबर मुहम्मद साहब के नवासे हजरत इमाम हुसैन व उनके साथियों की शहादत इस महीने का गवाह है।
मुहर्रम सब्र व इबादत का महीना है। यह बाते मौलाना कामिल हुसैन नदवी ने एक खास मुलाक़ात में कही, उन्होंने कहा कि इसी महीने में पैगंबर हजरत मुहम्मद साहब स०ने पवित्र मक्का से पवित्र नगर मदीना में हिजरत की थी। यानी कि आप मक्का से मदीना मुनव्वरा तशरीफ लाए। उन्होंने कहा कि कर्बला यानी आज का इराक, जहां सन् 60 हिजरी को यजीद इस्लाम धर्म का खलीफा बन बैठा था। वह अपने वर्चस्व और तानाशाही से पूरे अरब में अपनी हुकूमत करना चाहता था। लेकिन उसके सामने सबसे बड़ी चुनौती थी। पैगम्बर मुहम्मद साहब के खानदान के इकलौते चिराग हजरत इमाम हुसैन र० जो किसी भी हालत में यजीद के सामने झुकने को तैयार न थे।
इस वजह से सन् 61 हिजरी से यजीद की जुल्म ज्यादती बढ़ती गई, ऐसे में हालात में हजरत इमाम हुसैन र० ने अपने परिवार और साथियों के साथ मदीना से इराक के शहर कुफा जाने लगे लेकिन रास्ते में यजीद की फौज ने कर्बला के रेगिस्तान पर हजरत इमाम हुसैन के काफिले को रोक दिया।
और 2 मुहर्रम का दिन था, जब हुसैन का काफिला कर्बला के तपते रेगिस्तान पर रुका। वहां पानी का एकमात्र सहारा फरात नदी थी, जिस पर यजीद की फौज ने 6 मुहर्रम से हुसैन के काफिले पर पानी के लिए रोक लगा दी थी। इसके बाद भी हजरत इमाम हुसैन उसके सामने नहीं झुके। यजीद के नुमाइंदों ने हजरत इमाम हुसैन को झुकाने की पूरी कोशिश करते रहे,लेकिन उनकी कोशिश नाकाम होती रही, और आखिर में जंग का ऐलान हो गया।
इतिहास इस बात का आज भी गवाह है कि यजीद की 80,000 की फौज के सामने हुसैन के 72 बहादुरों ने जिस तरह जंग की, उसकी मिसाल खुद दुश्मन फौज के सिपाही एक-दूसरे को देने लगे। हजरत मौलाना कामिल हुसैन नदवी ने रोशनी डालते हुए कहा कि हुसैन कहां जंग जीतने आए थे, वे तो अपने आपको अल्लाह की राह में कुर्बान करने आए थे।
उन्होंने अपने नाना और वालिद के सिखाए हुए सदाचार, उच्च विचार, अध्यात्म और अल्लाह से बेपनाह मुहब्बत में प्यास, दर्द, भूख और तकलीफ सब पर सब्र किया। 10 वें मुहर्रम के दिन तक हुसैन अपने भाइयों और अपने साथियों की मिली शहादत को सुपुर्दे खाक करते रहे। एक वक्त ऐसा आया कि वे तन्हा बचे और अकेले जंग करते रहे, लेकिन दुश्मन से शिकस्त नहीं मानी।
आखिर में अस्र की नमाज के वक्त जब हजरत इमाम हुसैन खुदा के बारगाह मे सजदा कर रहे थे, तभी एक यजीदी को लगा कि शायद यही सही मौका है हुसैन को मारने का। फिर उसने धोखे से हुसैन को शहीद कर दिया। लेकिन हजरत इमाम हुसैन को तो शहादत मिल गई,और वह हमेशा के लिए लफानी हो गए,पर यजीद तो जीतकर भी हार गया।
उसके बाद अरब में क्रांति आई, हर रूह कांप उठी और हर आंखों से आंसू निकल आए और इस्लाम गालिब हुआ। उन्होंने कहा कि जो आज भी जिंदा है। और पूरी दुनिया में इस्लाम की बुलंदी का परचम लहराया।